Rajasthan news: जयपुर। राज्य में विकलांग कोटे (Reservation for Divyang) में भर्ती के मामले की जांच ने गंभीर कमियां उजागर की हैं….2024 में तहसीलदार बनी भाजपा विधायक शंकर सिंह रावत (ब्यावर) की पुत्री कंचन चौहान की मेडिकल रिपोर्ट में दी गयी 40% से अधिक विकलांगता की श्रेणी गलत निकली। (Rajasthan news)जांच के दायरे में अब तक कुल 38 प्रमाणपत्र फर्जी पाए गए हैं और 100 से अधिक ऐसे डॉक्टरों की पहचान हो रही है जो संभवतः गलत सर्टिफिकेट जारी कर रहे थे।
सिस्टमिक कमजोरी और सत्यापन का अभाव
यह मामला सिर्फ़ कुछ भोतिक व्यक्तियों का धोखा नहीं रहा — यह उस सिस्टमिक दोष को उजागर करता है जो आरक्षण-नीति की भावना को कमजोर कर रहा है। अगर 40% न्यूनतम विकलांगता मानदंड का पालन ठोस और विश्वसनीय तरीके से न हो, तो वास्तविक जरूरतमंदों का अधिकार प्रभावित होता है और प्रशासनिक पारदर्शिता पर शक पैदा होता है।
क्या हुआ — तफ्तीश की मुख्य बातें
- एसओजी (Special Operations Group) के पत्र के बाद चिकित्सा शिक्षा विभाग ने सदेश भेजा और संबंधित विभागों को 24 प्रमुख नामों की सूची दी गई।
- एसओजी ने कुल 66 कर्मचारियों को मेडिकल जांच के लिए बुलाया — 23 अनुपस्थित रहे; 43 की जांच में केवल 6 सही पाए गए; शेष 37 गलत पाए गए।
- कंचन चौहान की मेडिकल जांच में पाया गया कि वे बधिर नहीं हैं — एक कान पर कोई समस्या नहीं और दूसरे पर मात्र ~8% विकलांगता के समतुल्य बाध्यता पाई गई।
- फर्जी प्रमाणपत्र जारी करने वाले 100 से अधिक डॉक्टरों की पहचान पर कार्रवाई की तैयारी है; चिकित्सा शिक्षा विभाग को संबंधित जानकारी भेजी जा चुकी है।
- कविता यादव नामक अधिकारी को फर्जी बधिर सर्टिफिकेट के आधार पर नौकरी मिलने पर बर्खास्त कर दिया गया और खिलाफ FIR दर्ज की गई।
किस विभाग में कितनी समस्याएँ मिलीं
शिक्षा विभाग और प्राथमिक विद्यालयों में सर्वाधिक मामले उजागर हुए हैं। प्रभावित पदों में प्राइमरी शिक्षक, द्वितीय श्रेणी व प्रथम श्रेणी शिक्षक, कॉलेज व्याख्याता, कनिष्ठ लेखाकार, जिला परिषद के VDO, सहायक कर्मचारी और एएनएम शामिल हैं। (जिन जिलों के नाम प्रारम्भिक रिपोर्ट में हैं: बाड़मेर, भरतपुर, हनुमानगढ़, जैसलमेर, उदयपुर, जोधपुर, दौसा, बीकानेर, बांसवाड़ा, ब्यावर, चूरू)।
सत्यापन प्रक्रिया, तकनीक और मानव-तर्क
इस घोटाले से स्पष्ट होता है कि चिकित्सा प्रमाण-पत्रों के सत्यापन में प्रक्रिया, तकनीकी संसाधन और इंसानी जवाबदेही के तीनों स्तर कमजोर हैं। कुछ मुख्य बिंदु जिन्हें तत्काल देखना आवश्यक है:
- डिजिटल मेडिकल रजिस्ट्रेशन: सर्टिफिकेट जारी करते समय आभासी/डिजिटल कोड के साथ केंद्रीय डेटाबेस में रजिस्ट्रेशन अनिवार्य किया जाए — इससे प्रमाणों का ऐप-आधारित सत्यापन संभव होगा।
- स्वतंत्र मेडिकल बोर्ड: भर्ती के पहले और जॉइनिंग के बाद एक स्वतंत्र, क्षेत्रीय मेडिकल बोर्ड द्वारा नवीनीकृत परीक्षण (fast-track) कराना आवश्यक है।
- डॉक्टरी जवाबदेही: फर्जी प्रमाण-पत्र जारी करने वाले डॉक्टरों पर मेडिकल लाइसेंस, पेनल्टी और आपराधिक मुक़दमे की तेज कार्रवाई होनी चाहिए।
- ऑडिट और ट्रांस्पेरेंसी: हर विभाग में विकलांग कोटे के तहत भर्तियों का सालाना ऑडिट सार्वजनिक तौर पर जारी किया जाए।
क्या होना चाहिए?
- एसओजी और चिकित्सा शिक्षा विभाग द्वारा डॉक्टरों की पहचान के आधार पर तुरंत अनुशासनात्मक व आपराधिक कार्रवाइयाँ।
- जिन कर्मचारियों के सर्टिफिकेट फर्जी पाए गए हैं, उनके खिलाफ विभागीय कार्यवाही और जहां संगत हो, FIR।
- भविष्य में भर्ती से पहले अनिवार्य, मानकीकृत और ऑडिट-ट्रेल वाले मेडिकल सर्टिफिकेट का नियम लागू करना।
- विकलांग समुदाय के साथ परामर्श कर वास्तविक जरूरतों पर नियमों का पुनरावलोकन।
वर्तमान स्थिति
सरकार ने सभी विभागों में कोटे के कर्मचारियों की जांच के निर्देश जारी किए हैं। मेडिकल एजुकेशन कमिश्नर इकबाल खान ने कहा है कि जॉइनिंग से पहले संभागीय स्तर पर पुनः मेडिकल कराया जा रहा है और जो भर्तियाँ पहले हुईं, उनकी भी जांच करायी जाएगी। हालांकि, जांच के लिए सीमित मशीन-शेड्यूल और छह माह तक अपॉइंटमेंट जैसी व्यावहारिक बाधाएँ प्रक्रिया को धीमा कर सकती हैं।
सिस्टम को कैसे ठीक करें?
कंचन चौहान और 37 अन्य फर्जी प्रमाणपत्रों का मामला केवल नामों का हश्र नहीं है — यह उस चुनौती का संकेत है कि कैसे सामाजिक न्याय की नीतियाँ तकनीकी और प्रशासनिक कमजोरियों के कारण विकृत हो सकती हैं। तुरंत पारदर्शी ऑडिट, डिजिटल सर्टिफिकेशन और कड़े दंड से ही भविष्य में ऐसे घोटालों को रोका जा सकता है। वरना वास्तविक दिव्यांगों के हक, सरकारी सेवाओं की विश्वसनीयता और जनता का भरोसा दोनों प्रभावित होते रहेंगे।
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