
Uttarakhand: देवभूमि उत्तराखंड….जहां हिमालय की गोद में बहती पवित्र नदियां जीवन देती हैं, आज वही विनाश का कारण बनती जा रही हैं। बार-बार आने वाली आपदाएं अब इत्तेफाक नहीं, चेतावनी हैं – हमारे पर्यावरण, नीति और विकास के मॉडल को लेकर।
उत्तराखंड को हमेशा से देवभूमि कहा जाता रहा है। इसकी प्राकृतिक खूबसूरती ….हरे-भरे जंगल, बर्फ से ढकी चोटियां, बहती नदियां और शांति – सैलानियों को आकर्षित करती रही है। (Uttarakhand)लेकिन अब यह शांति भंग हो रही है। हर साल बाढ़, भूस्खलन, बादल फटना और ग्लेशियर टूटने जैसी घटनाएं आम होती जा रही हैं।
प्राकृतिक आपदाएं या मानवीय लापरवाही?
विशेषज्ञ मानते हैं कि उत्तराखंड की तबाही का कारण सिर्फ प्राकृतिक घटनाएं नहीं, बल्कि मानव निर्मित कारक भी हैं। पहाड़ी भूगोल में अंधाधुंध निर्माण, जलविद्युत परियोजनाओं, सुरंगों और अनियोजित पर्यटन से वहां की चट्टानें कमजोर हो रही हैं, जिससे भूस्खलन और बाढ़ की आशंका बढ़ गई है।
2013 की केदारनाथ त्रासदी से लेकर 2021 की चमोली आपदा तक, हर साल बादल फटने और ग्लेशियर टूटने की घटनाएं सामने आ रही हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि एलिवेटेड वॉर्मिंग – यानी पहाड़ों पर औसत से ज्यादा तापमान – के कारण ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।
पर्यटन और परियोजनाओं का प्रेशर
उत्तराखंड में हर साल लगभग 4 करोड़ पर्यटक आते हैं, विशेषकर चारधाम यात्रा के दौरान। इससे सड़क निर्माण, कचरा, जंगलों की कटाई और संसाधनों पर दबाव बढ़ा है। साथ ही, जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर ब्लास्टिंग और ड्रिलिंग की जा रही है, जो पहाड़ों की स्थिरता को नुकसान पहुंचा रही है।
क्या यह विकास है या विनाश?
आज जब उत्तराखंड प्राकृतिक आपदाओं की प्रयोगशाला बन चुका है, तो यह सवाल लाजमी है – क्या हम सही दिशा में विकास कर रहे हैं? नीति-निर्धारकों को अब यह सोचना होगा कि क्या ये परियोजनाएं वास्तव में राज्य के हित में हैं, या केवल तत्कालिक लाभ के लिए दीर्घकालिक संकट पैदा कर रही हैं।
अब भी समय है: बदलाव की जरूरत
उत्तराखंड को बचाने के लिए नीतिगत बदलाव, पर्यावरण अनुकूल विकास, और जन-जागरूकता की जरूरत है। यदि अभी कदम नहीं उठाए गए, तो वह दिन दूर नहीं जब देवभूमि केवल त्रासदी की भूमि बनकर रह जाएगी।
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