घटती विधानसभा बैठकें! लोकतंत्र के प्रति सरकारों की उदासीनता…. संविधान की अनदेखी पर बढ़ते सवाल”

Rajasthan Assembly Sessions: लोकतंत्र की सफलता का आधार संवाद और विचार-विमर्श की प्रक्रिया है। विधानसभा सत्र, इसी संवाद प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण मंच है, जहां जनप्रतिनिधि राज्य के विकास, जनता के मुद्दों और प्रशासनिक नीतियों पर चर्चा करते हैं। राजस्थान में भजनलाल सरकार का बजट सत्र, जो इस माह के अंत में शुरू होने जा रहा है, ऐसे ही एक महत्वपूर्ण अवसर का प्रतीक है। यह सरकार का तीसरा सत्र है, जो न केवल आगामी नीतियों और योजनाओं की दिशा तय करेगा, बल्कि विपक्ष और अन्य दलों को भी अपनी भूमिका निभाने का अवसर देगा।

हालांकि, विधानसभा सत्रों की अवधि और गुणवत्ता को लेकर सवाल उठना कोई नई बात नहीं है। पिछले साल बजट सत्र को 30 दिन या उससे अधिक चलाने के दावे किए गए थे, लेकिन वे वास्तविकता में झूठे साबित हुए। (Rajasthan Assembly Sessions)यह स्थिति इस बात की ओर इशारा करती है कि जैसे-जैसे समय बीत रहा है, सत्रों की गंभीरता और उनकी अवधि दोनों में कमी आती जा रही है।

आज, जब जनहित के मुद्दों पर खुली चर्चा की सबसे ज्यादा जरूरत है, तो ऐसे में सत्र की अवधि और प्रभावशीलता पर ध्यान देना नितांत आवश्यक है। सवाल यह है कि इस बार का सत्र इन अपेक्षाओं पर कितना खरा उतरेगा

सत्रों की घटती संख्या… लोकतंत्र पर मंडराता खतरा

लोकतंत्र का मूल आधार संवाद और जिम्मेदारी है, लेकिन राजस्थान में विधानसभाओं की घटती बैठकें इस आधार को कमजोर कर रही हैं। जनता की समस्याओं पर चर्चा करने और सरकार को जवाबदेह बनाने का यह सबसे बड़ा मंच है, लेकिन हर साल सत्रों और बैठकों की संख्या में गिरावट लोकतंत्र के प्रति सरकारों की प्रतिबद्धता पर सवाल खड़ा करती है।

सत्ता की सुविधाभोगी राजनीति

संविधान के अनुच्छेद 174 के तहत हर साल तीन सत्र बुलाना और 60 बैठकें करना अनिवार्य है, लेकिन वास्तविकता में ये लक्ष्य केवल कागजों पर ही रह गए हैं। सत्ता में आने के बाद सरकारें खुद को इन दायित्वों से बचाने के लिए तरह-तरह की रणनीतियां अपनाती हैं। जनता के सवालों और विपक्ष की आलोचना से बचने के लिए बैठकें कम की जा रही हैं। यह स्पष्ट संकेत है कि सरकारें लोकतांत्रिक मूल्यों को केवल दिखावे तक सीमित रखना चाहती हैं।

भ्रष्टाचार…नौकरशाही पर नियंत्रण का अभाव

बैठकों की घटती संख्या केवल लोकतंत्र को कमजोर नहीं करती, बल्कि सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण को भी खत्म कर देती है। विधानसभा सत्र के दौरान सरकारी नीतियों और कार्यशैली की समीक्षा होती है, जिससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है। लेकिन अगर सत्र ही नहीं चलेंगे, तो नौकरशाही बेलगाम हो जाएगी और सरकार पर जवाबदेही का बोझ खत्म हो जाएगा।

संविधान और नियमों की अवहेलना: कौन जिम्मेदार?

1952 से लेकर अब तक केवल दो सरकारें ऐसी रही हैं जिन्होंने संविधान में निर्धारित सत्र और बैठकें पूरी कीं। शुरुआती दौर की सरकारें (टीकाराम पालीवाल, एम.एल. सुखाड़िया) इन नियमों का पालन करते हुए लोकतंत्र की मजबूत नींव रखती थीं। लेकिन वर्तमान की राजनीति ने नियमों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया है।

राजस्थान की वर्तमान भाजपा सरकार भी इस परंपरा को आगे बढ़ा रही है। पांच साल में 300 बैठकों के बजाय 150 बैठकें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। सवाल यह है कि जब लोकतंत्र का यह हाल होगा, तो जनता की आवाज कैसे सुनी जाएगी?

बैठकों की संख्या और सरकारों का प्रदर्शन

राजस्थान की विधानसभाओं की गिरावट का स्पष्ट चित्र नीचे दी गई तालिका में देखा जा सकता है:

विधानसभा बैठकें मुख्यमंत्री
पहली 303 टीकाराम पालीवाल, जयनारायण व्यास, एम.एल. सुखाड़िया
दूसरी 306 एम.एल. सुखाड़िया
सोलहवीं 30 भजनलाल शर्मा

इन आंकड़ों से साफ है कि सरकारें समय के साथ लोकतंत्र को प्राथमिकता देने के बजाय, अपनी सहूलियत के हिसाब से सत्र चला रही हैं।

चर्चा के बजाय हंगामा.. जिम्मेदार कौन?

सत्रों के दौरान हर मुद्दे पर हंगामा, विपक्ष के सवालों का जवाब न देना, और बहस से बचने की सरकारों की रणनीति लोकतांत्रिक प्रक्रिया को खोखला कर रही है। यह रवैया यह दर्शाता है कि सरकारें जनता के मुद्दों को गंभीरता से नहीं ले रही हैं।

राजनीतिक इरादों का दायरा सीमित

पांच साल में कम से कम 15 सत्र बुलाने का प्रावधान है, लेकिन ऐसा कोई भी मुख्यमंत्री नहीं रहा जिसने इस लक्ष्य को पूरा किया हो। यहां तक कि सत्रों को लंबा चलाने के बड़े-बड़े दावे भी केवल राजनीतिक बयानबाजी तक सीमित रह जाते हैं।

1972-77 में मुख्यमंत्री बरकतुल्लाह खान और हरिदेव जोशी के कार्यकाल को छोड़ दें तो हर सरकार ने इस दिशा में केवल असफलता ही हासिल की है।

लोकतंत्र पर संकट: किसे दोष दें?

लोकतंत्र की इस दुर्दशा के लिए केवल सरकारें ही नहीं, बल्कि विपक्ष और पीठासीन अधिकारी भी जिम्मेदार हैं। हर सत्र में चर्चा को बढ़ाने के लिए प्रस्ताव पारित किए जाते हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं होता।

हकीकत यह है कि लोकतंत्र की यह दुर्दशा केवल राजनेताओं के व्यक्तिगत लाभों और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का परिणाम है।

लोकतंत्र का भविष्य बचाने की आवश्यकता

विधानसभा सत्र केवल एक औपचारिक प्रक्रिया नहीं है, यह जनता और सरकार के बीच संवाद का पुल है। लेकिन इस पुल को कमजोर कर सत्ता की राजनीति ने लोकतंत्र को खतरे में डाल दिया है। यदि समय रहते इसे दुरुस्त नहीं किया गया, तो लोकतंत्र का यह मंदिर केवल एक औपचारिक संस्था बनकर रह जाएगा। अब वक्त है कि जनता और विपक्ष इस मुद्दे को प्राथमिकता दें और सरकारों को जवाबदेह बनाएं।

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Bodh Saurabh

Bodh Saurabh, a journalist from Jaipur, began his career in print media, working with Dainik Bhaskar, Rajasthan Patrika, and Khaas Khabar.com. With a deep understanding of culture and politics, he focuses on stories related to religion, education, art, and entertainment, aiming to inspire positive change through impactful reporting.

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